यूरोपीय व्यापारियों को भारतीय मसालों और बारीक मलमल की भनक लग गई थी। पहले तो भारतीय व्यापारी ये वस्तएँ लेकर यरोप जाते थे और वहाँ से सोना-चाँदी लादकर समुद्री जहाजों से भारत लाते थे। बाद में फारस के व्यापारी मध्यस्थ बन गए और वे भारत से माल लेकर यूरोप जाने लगे । यूरोपीय व्यापारी यह काम स्वयं करना चाहते थे। उन्हें किसी की मध्यस्थता स्वीकार नहीं था।
सबसे पहले पुर्तगाल का एक नाविक 1498 में वहां की सरकार की मदद से भारत पहुंचने का निश्चय किया । उसने उत्तमाशा अंतरीप का मार्ग पकड़ा और भारतीय तट पर पहुँचने में सफलता पाई । यहाँ से उसने स्वयं व्यापार करना आरम्भ किया।
इसके बाद इंग्लैंड, हॉलैंड और फ्रांस का ध्यान इस ओर गया। ये भी सत्रहवीं शताब्दी में भारत पहुंच गये और व्यापार करना आरम्भ किया । अंग्रेजों ने कपड़े खरीदने पर अधिक ध्यान दिया । इसके लिये ये दलालों के मार्फत करघा चालकों को अग्रिम रकम भी देने लगे । आगे चलकर विभिन्न स्थानों में इन विदेशियों ने अपनी-अपनी कोठियाँ बनाईं । यूरोपीय कम्पनियों के भारतीय दलाल ‘दादनी’ कहलाते थे।