(अ) चित्तौड़गढ़ दुर्ग मध्यमिका नगरी के पतन के बाद चित्रकूट पहाड़ी पर 7वीं सदी में चित्तौड़गढ़ दुर्ग की नींव रखी गई। कालान्तर में प्रतिहार, चालुक्य, परमार तथा सिसोदिया शासकों द्वारा इसका समय-समय पर विकास और आगे विस्तार होता रहा। जिस शासन के अधीन यह दुर्ग रहा उसके शासन के काल के स्थापत्य को यहाँ देखा जा सकता है।
(1) दुर्ग की स्थिति-यह दुर्ग मत्स्याकार पहाड़ी पर स्थित है, जो दो सुदृढ़ प्राचीरों से घिरा हुआ रहा है।
(2) स्थापत्य-दुर्ग में सात प्रवेश द्वार है तथा राजमहल, कलात्मक मंदिर, जलाशय आदि बने हुए हैं।
(3) विजय स्तंभ-दुर्ग पर बने प्राचीन तीर्थ-स्थल गौमुख कुण्ड के उत्तर-पूर्वी कोण पर कुंभा ने कीर्ति (विजय) स्तंभ बनवाया जो 47 फीट वर्गाकार व 10 फीट ऊँची जगती (चबूतरा), 122 फीट की ऊँचाई लिए नौ खंडों (मंजिलों) का स्मारक अपने स्थापत्य में बेजोड़ है। नौ खण्डों के विजय स्तंभ में असंख्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसलिए इसे 'भारतीय मूर्तिकला का शब्दकोष' भी कहा जाता है।
(ब) कुंभलगढ़ दुर्ग:
कुंभलगढ़ दुर्ग का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है -
- दुर्ग का स्थान-कुंभलगढ़ का दुर्ग छोटी-बड़ी पहाड़ियों से मिलकर बना तथा घाटियों एवं बीहड़ जंगलों से घिरा होने के कारण एकाएक नजर नहीं आता। यह सर्वाधिक सुरक्षित दुर्ग है। इसे कुम्भलमेर भी कहा जाता है।
- दुर्ग का पुनः निर्माण-दुर्ग के प्राचीन अवशेष पर इसका पुनः निर्माण हुआ। नवीन परिवर्तित स्वरूप प्रदान करने वाले राणा कुंभा थे। इन्होंने अपने प्रसिद्ध शिल्पी सूत्रधार मंडन के नेतृत्व में 1458 ई. में इसे निर्मित करवाया।
- दुर्ग का स्थापत्य -
- नौ पोलों (दरवाजों) से युक्त दुर्ग के चारों ओर घुमावदार सुदृढ़ एवं चौड़ी दीवार बनी हुई
- दीवारों के नीचे गहरी खाइयाँ व खड्डे बने हुए हैं जो इसे और अधिक दुर्गम बनाते हैं।
- दुर्ग में समतल भूमि पर निर्मित स्थापत्य कला के नमूने अनूठे हैं, जैसे-नीलकंठ महादेव का मंदिर, यज्ञ वेदी के साथ ही कई जैन मंदिर, झालीबाव (बावड़ी), मामादेव (महादेव) का कुण्ड, कुंभस्वामी नामक विष्णु मंदिर, रायमल के पुत्र पृथ्वीराज का स्मारक आदि।
- दुर्ग का सर्वाधिक उच्च भाग कटारगढ़ कहलाता है, यहीं महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। सीमा और सामरिक दृष्टि से इस दुर्ग का बड़ा महत्त्व रहा है।