सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन-किन चीजों पर निर्भर करता है?
स्वाध्याय
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सामाजिक विभाजन की राजनीति तीन तत्वों पर निर्भर करती है जो निम्नलिखित हैं

1. लोग अपनी पहचान स्व. अस्तित्व तक ही सीमित रखना चाहते हैं, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उप-राष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होती है। कोई एक घटना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है। भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि जबतक बंगाल बंगालियों का, तमिलनाडु तमिलों का, महाराष्ट्र मराठियों का, आसाम असमियों का, गुजरात गुजरातियों की भावना का दमन नहीं होगा तबतक भारत की अखण्डता, एकता तथा सामंजस्य खतरा में रहेगा। अतएव उचित यही है कि पहचान के लिए सभी चेतनाएँ अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और एक दूसरे की सीमा में दखल न दें. सरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अगर लोग अपने बहु-स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मानते हैं तो कोई समस्या नहीं हो सकती। उदाहरण स्वरूप-बेल्जियम के अधिकतर लोग खुद को बेल्जियाई (Belgian) ही मानते हैं, भले ही वे डच और जर्मन बोलते हैं। हमारे देश में भी ज्यादातर लोग अपनी पहचान को लेकर ऐसा ही नजरिया रखते हैं। भारत विभिन्नताओं का देश है, फिर भी सभी नागरिक सर्वप्रथम अपने को भारतीय मानते हैं। तभी तो हमारा देश अखण्डता और एकता का प्रतीक है।

2. किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की मांगों को राजनीतिक दल कैसे उठा रहे हैं। संविधान ” के दायरे में आने वाली और दूसरे समुदायों को नुकसान न पहुँचाने वाली माँगों को मान लेना आसान ‘ है। सत्तर के दशक के पूर्व के राजनीतिक स्वरूप तथा अस्सी एवं नब्बे के दशक में राजनीति परिदृश्य में बदलाव हुआ और भारतीय समाज में सामंजस्य अभी तक बरकरार है। इसके विपरीत युगोस्लाविया में विभिन्न समुदाय के नेताओं ने अपने जातीय समूहों की तरफ से ऐसी माँगें रखीं कि जिन्हें एक देश की सीमा के अन्दर पूरा करना संभव न था। इसी के परिणामस्वरूप युगोस्लाविया कई टुकड़ों में बँट गया।

3. सामाजिक विभाजन के राजनीति का परिणाम सरकार के खर्च पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार इन मांगों पर क्या प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं। अगर भारत में पिछड़ों एवं दलितों के प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारिज रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता। लेकिन सरकार ने इनके सामाजिक न्याय को चिह्न मानते हुए सत्ता में साझेदार बनाया और उनको देश की मुख्य धारा में जोड़ने का ईमानदारी से प्रयास किया। फलतः छोटे संघर्ष के बावजूद भी भारतीय समाज में समरसत्ता और सामंजस्य स्थापित है। पुनः बेल्जियम में भी सभी समुदायों के हितों को सामुदायिक सरकार में उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। परन्तु . श्रीलंका में राष्ट्रीय एकता के नाम पर तमिलों के न्यायपूर्ण माँगों को दबाया जा रहा है। ताकत के दम पर एकता बनाये रखने की कोशिश अकसर विभाजन की ओर ले जाती है।
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