स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रेस की भूमिका की व्याख्या करें।
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वैश्विक स्तर पर मुद्रण अपने आदि काल से भारत में स्वाधीनता आंदोलन तक भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से गुजरते हुए आज अपनी उपादेयता के कारण ऐसी स्थिति में पहुँच गया है जिससे ज्ञान जगत की हर गतिविधियाँ प्रभावित हो रही है। आज पत्रकारिता साहित्य, मनोरंजन ज्ञान-विज्ञान, प्रशासन, राजनीति आदि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। – स्वातत्र्योत्तर भारत में पत्र-पत्रिकाओं का उद्देश्य भले ही व्यवसायिक रहा हो किन्तु इसने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अभिरूचि जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है।
पत्र-पत्रिकाओं ने दिन-प्रतिदिन घटने वाली घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में नई और सहज शब्दावली का प्रयोग करते हुए भाषाशास्त्र के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रेस ने समाज में नवचेतना पैदा कर सामाजिक धार्मिक राजनीतिक एवं दैनिक जीवन में क्रांति का सूत्रपात किया। प्रेस ने सदैव सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बालिकावधु, बालहत्या, शिशु विवाह जैसे मुद्दों को उठाकर समाज के कुप्रथाओं को दूर करने में मदद की तथा व्याप्त अंधविश्वास को दूर करने का प्रयास किया।
आज प्रेस समाज में रचनात्मकता का प्रतीक भी बनता जा रहा है। यह समाज की नित्यप्रति की उपलब्धियों, वैज्ञानिक अनुसंधानों, वैज्ञानिक उपकरणों एवं साधनों से परिचित कराता है। आज के आधुनिक दौर में प्रेस साहित्य और समाज की समृद्ध चेतना की धरोहर है। प्रेस लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने हेतु सजग प्रहरी के रूप में हमारे सामने खडा है।
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    (क) छापाखाना
    (ख) गुटेनबर्ग
    (ग) बाइबिल
    (घ) रेशम मार्ग
    (ङ) मराठा
    (च) यंग इंडिया
    (छ) वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट
    (ज) सर सैय्यद अहमद
    (झ) प्रोटेस्टेन्टवाद
    (ञ) मार्टिन लूथर
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