स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व राजस्थान में सती प्रथा, कन्या वध, बाल विवाह, अनमेल विवाह, दास प्रथा व डाकन प्रथा जैसी कुरीतियाँ प्रचलित थीं। इन कुरीतियों का परिचय निम्नलिखित है
1. सती प्रथा: पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी को अपने पति की चिता में जलना सती प्रथा थी। यह कुप्रथा भारत के अन्य क्षेत्रों के साथ राजस्थान में भी प्रचलित थी। ब्रिटिश काल में राजा राममोहन राय के अथक प्रयासों के वशीभूत होकर लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सन् 1829 ई. में कानून बनाकर सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया।
2. कन्या वध-कन्या वध की कुप्रथा का प्रचलन भी जोरों पर था, लोग कन्याओं को पैदा होते ही मार देते थे। राजस्थान में कन्या वध कुप्रथा को सर्वप्रथम के राज्य ने गैर कानूनी घोषित किया । तत्पश्चात् बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, उदयपुर और अलवर राज्यों ने इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।
3.बाल विवाह एवं अनमेल विवाह-कम उम्र की कन्याओं का विवाह उनसे अधिक उम्र के पुरुषों से करना अनमेल विवाह कहलाता है। जबकि कम उम्र के अवयस्क बालकबालकाओं का विवाह कर देना बाल विवाह कहलाता है। ये दोनों ही कुप्रथाएँ समाज में प्रचलित थीं। इससे बालकबालिकाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है जो कि प्रगतिशील समाज के लिए उपयुक्त नहीं होता। राष्ट्रीय स्तर पर इन कुप्रथाओं को रोकने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आवाज उठाई । जबकि राजस्थान में 10 दिसम्बर, 1903 को अलघर रियासत ने बाल विवाह और अनमेल विवाह निषेध कानून बनाया।
4. दास प्रथा-भारत में यह प्रथा प्राचीन काल से अस्तित्व में थी। राजस्थान भी इससे बच नहीं था। दास शासकों, सामंतों या धनिकों के यहाँ सेवा-सुश्रुषा के लिए रखे जाते थे। दासों की संख्या के आधार पर कुल और परिवारों की प्रतिष्ठा एवं उच्चता का आंकलन होता था। इस प्रथा को चाकर या हाली के तौर पर जाना जाता था। इस कुप्रथा को अंग्रेजों ने 1833 ई. के चार्टर अधिनियम द्वारा समाप्त किया।
5. डाकन प्रथा-यह अंधविश्वास पर आधारित कुप्रथा थी। इस कुप्रथा के तहत राजस्थान में कुछ जातियों में स्त्रियों पर डाकन होने का आरोप लगाकर उन्हें मार डाला जाता था। मेवाड़ और कोटा में इसका प्रचलन अधिक था। सन् 1833 ई. में ए.जी.जी. राजपूताना ने इस प्रथा के उन्मूलन हेतु रियासतों के शासकों पर दबाव डाला। परिणामतः इस कुप्रथा को निषेध कर दिया गया।