वित्तीय संस्थाओं को प्रायः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है—मुद्रा बाजार की वित्तीय संस्थाएँ तथा पूँजी बाजार की वित्तीय संस्थाएँ। मुद्रा बाजार की वित्तीय संस्थाएँ साख या ऋण का अल्पकालीन लेन-देन करती हैं। इसके विपरीत, पूँजी बाजार की संस्थाएँ उद्योग तथा व्यापार की दीर्घकालीन साख की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। मुद्रा बाजार की वित्तीय संस्थाओं में बैंकिंग संस्थाएँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। भारतीय बैंकिंग प्रणाली के शीर्ष पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया है जिसकी स्थापना अप्रैल 1935 में हुई थी। यह भारत का केंद्रीय बैंक है जो. देश की संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था का नियमन एवं नियंत्रण करता है।
भारत की बैंकिंग प्रणाली व्यावसायिक बैंकों पर आधारित है। व्यावसायिक बैंकों का मुख्य कार्य जनता की बचत को जमा के रूप में स्वीकार करना तथा उद्योग एवं व्यवसाय को उत्पादन कार्यों के लिए ऋण प्रदान करना है। व्यावसायिक बैंक कई प्रकार की अन्य वित्तीय सेवाएँ भी प्रदान करते हैं, जैसे मुद्रा का हस्तांतरण, साखपत्र जारी करना इत्यादि। कुछ समय पूर्व तक हमारे देश के अधिकांश व्यावसायिक बैंकों की शाखाएँ शहरी क्षेत्रों में स्थित थीं। ये बैंक उद्योग एवं व्यापार के लिए केवल अल्पकालीन ऋण की व्यवस्था करते थे। परंतु, हमारी अर्थव्यवस्था में बैंकिंग के महत्त्व को देखते हुए सरकार ने देश के प्रमुख व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर लिया है। इसका मुख्य उद्देश्य समाज के पिछड़े और उपेक्षित वर्ग को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी अधिक-से-अधिक शाखाओं का विस्तार करना था।
1975 से सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों को ऋण प्रदान करने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की एक नई योजना आरंभ की है। इन बैंकों का मुख्य कार्य ग्रामीण क्षेत्र के छोटे एवं सीमांत किसानों, कृषि श्रमिकों, कारीगरों, छोटे व्यापारियों आदि को आर्थिक सहायता प्रदान करना है।
कृषि-साख की आवश्यकताओं को पूरा करनेवाली वित्तीय संस्थाओं में सहकारी साख समितियों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। ग्रामीण तथा कृषि क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए सरकार ने जुलाई 1982 में ‘राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक’ की स्थापना की है। यह बैंक कृषि तथा ग्रामीण साख की पूर्ति के लिए देश की शीर्ष संस्था है।
भारतीय मुद्रा बाजार का एक असंगठित क्षेत्र भी है जिसे देशी बैंकर की संज्ञा दी जाती है। यह क्षेत्र प्राचीन पद्धति के अनुसार ऋणों के लेन-देन का कार्य करता है तथा इसे देश के विभिन्न भागों में साहूकार, महाजन, चेट्टी, सर्राफ आदि नामों से पुकारा जाता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी देशी बेंकरों की ही प्रधानता है।