राजस्थान की चित्रकला का विकास-राजस्थान में मेवाड़ की चित्रांकन परम्परा शैलाश्रयों से चली आ रही है। कागज पर चित्रांकन परम्परा के क्रम में मोकल के समय देलवाड़ा में चित्रित 'सुपासनाह चरित्रम' ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय है। यह कला राजदरबारों तक ही सीमित थी, परन्तु सल्तनतों के पतन के साथ ही चित्रकार राज्य संरक्षण प्राप्ति के लिए इधर-उधर चले गए। तब राजस्थानी शासकों ने उन्हें प्रश्रय दिया। मुगल चित्रकारों ने स्थानीय कलाकारों व चित्र परम्परा के साथ काम कर एक नूतन चित्र-शैली की जन्म दिया जो स्थानीय विशेषताओं के कारण स्वतंत्र शैली के रूप में विकसित हुई। विभिन्न चित्र-शैलियाँविभिन्न रियासतों में विकसित चित्रकला अपनी स्थानीय विशेषताओं के कारण शैली बन गई। इन विभिन्न शैलियों को रंग, पृष्ठभूमि, विभिन्न पशु-पक्षियों आदि की दृष्टि से पहचाना जा सकता है। यथा ,
- जयपुर-अलवर चित्र शैली की विशेषताएं-जयपुरअलवर शैली के चित्रों की विशेषताएँ हैं-हरे रंग का विशेष प्रयोग, चित्रों की पृष्ठभूमि में पीपल अथवा वटवृक्षों का अधिक मिलना तथा पशु-पक्षियों में मोर व घोड़े का अधिक चित्रण किया गया है।
- उदयपुर चित्र शैली की विशेषताएँ-उदयपुर चित्र शैली में चित्रों में लाल रंग का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है तथा चित्रों की पृष्ठभूमि में कदम्ब वृक्ष अधिक मिलते हैं। उदयपुर शैली में हाथी और चकोर पक्षी अधिक चित्रित किए गए हैं।
- किशनगढ़ शैली की विशेषताएँ-किशनगढ़ चित्र शैली के चित्रों में सफेद या गुलाबी रंग का विशेष प्रयोग हुआ है। यहाँ के चित्रों की पृष्ठभूमि में केले के पौधे को अधिक चित्रित किया गया है।
- कोटा-बूंदी शैली की विशेषताएँ-कोटा-बूंदी शैली के चित्रों में नीले-सुनहरे रंगों का विशेष प्रयोग हुआ है। चित्रों की पृष्ठभूमि में लम्बे खजूर के वृक्ष अधिक दर्शाए गए
- अन्य विशेषताएँ -
- विभिन्न शैलियों में स्त्री-पुरुषों की आकृतियाँ भी अलग-अलग हैं।
- आमेर (जयपुर), जोधपुर व बीकनेर की शैली पर मुगल प्रभाव स्पष्ट झलकता है। प्रायः शिकार, मनोरंजन की क्रीड़ाओं व उत्सवों के चित्रों के साथ-साथ प्राकृतिक, दैनिक जीवन, रीति-रिवाज एवं परम्पराओं से संबंधित चित्र भी बनाए जाते थे।