संसाधन मनुष्य के जीविका का आधार है। जीवन की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए संसाधनों के सतत् विकास की अवधारणा अत्यावश्यक है। ‘संसाधन प्रकृति-प्रदत्त उपहार है।’ की अवधारणा के कारण मानव ने इनका अंधाधुंध दोहन किया जिसके कारण पर्यावरणीय समस्याएँ भी उत्पन्न हो गयी हैं।
व्यक्ति का लालच लिप्सा ने संसाधनों का तीव्रतम दोहन कर संसाधनों के भण्डार में चिंतनीय हास ला दिया है। संसाधनों का केन्द्रीकरण खास लोगों के हाथों में आने से समाज दो स्पष्ट भागों में (सम्पन्न और विपन्न) बँट गया है।
संपन्न लोगों द्वारा स्वार्थ के वशीभूत होकर संसाधनों का विवेकहीन दोहन किया गया जिससे विश्व पारिस्थितिकी में घोर संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी। जैसे भूमंडलीय तापन, ओजोन अवक्षय, पर्यावरण प्रदूषण, अम्ल वर्षा इत्यादि।
उपर्युक्त परिस्थितियों से निजात पाने, विश्व-शांति के साथ जैव जगत् को गुणवत्तापूर्ण जीवन लौटाने के लिए सर्वप्रथम समाज में संसाधनों का न्याय-संगत बँटवारा अपरिहार्य है अर्थात् संसाधनों का नियोजित उपयोग हो। इससे पर्यावरण को बिना क्षति पहुँचाये, भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर, वर्तमान विकास को कायम रखा जा सकता है। ऐसी अवधारणा सतत विकास कही जाती है जिसमें वर्तमान के विकास के साथ भविष्य सुरक्षित रह सकता है।