प्राचीन भागलपुर शहर की पहचान एक व्यावसायिक और ‘सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में रही है। घने मुहल्लों और दर्जनों बाजार से घिरा भागलपुर एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं व्यावसायिक शहरी केन्द्र था। शायरी एवं नृत्य संगीत आमतौर पर मनोरंजन के साधन थे । इस शहर में ऐशो-आराम सिर्फ कुछ अमीर लोगों के हिस्से में आते थे। अमीर और गरीब के बीच फासला बहुत गहरा था। यहाँ व्यापारी, अधिकारी, सरकारी छोटे-बड़े कर्मचारी, कारीगर, जुलाहे, बुनकर, मजदूर; हर वर्ग के लोग रहते थे।
रेलवे का विकास और शहर से सटे रेलवे और गंगा नदी के किनारे बसे होने के कारण शहर की व्यापारिक गतिविधियों में और भी तेजी आई जिससे महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक शहर के रूप में इसे विकसित होने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ बैंकिंग, कम्पनियों के विक्रय एजेंट, हड्डी के काम के अतिरिक्त सिल्क, सूती, ऊनी कपड़े, किराना, अनाज, तेल का थोक व्यापार होता था। इस शहर का सबसे प्रसिद्ध उद्योग तसर सिल्क का कपड़ा तैयार करना था। यह व्यवसाय बहुत पुराने समय से चला आ रहा था। जिसके कारण इसे सिल्क सिटी भी कहा जाता है। यहाँ का कपड़ा यूरोपीय देशों को भेजा जाता था, जहाँ इसकी बहुत मांग थी।
भागलपुर की सांस्कृतिक विरासत भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही है। इस शहर में अनेक नामी-गिरामी साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, शिल्पकार, संगीतकारों एवं फोटोग्राफों का जमघट लगा रहता था । नामी लेखक शरतचन्द्र, विभूति भूषण बंधोपाध्याय, रविन्द्रनाथ टैगोर भागलपुर प्रवास कर चुके थे। प्रसिद्ध लेखक बलाई चंद्र मुखर्जी उर्फ बनफूल ने यहाँ लंबे समय तक लेखन कार्य किया था। साहित्यकार व रंगकर्मी राधाकृष्ण सहाय यहीं के थे जिन्होंने कई रचनाओं का बंगला से हिन्दी में अनुवाद किया। शरतचन्द्र ने कालजयी उपन्यास ‘देवदास’, विभूति भूषण बंधोपाध्याय ने ‘पथेर पांचाली’ का सृजन भागलपुर में ही रहकर किया। अतः भागलपुर शहर एक व्यावसायिक एवं सांस्कृतिक नगर था।