इतिहास की पुनर्व्याख्या और राष्ट्रवाद- भारत में इतिहास की पुनर्व्याख्या भी राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने का एक महत्वपूर्ण साधन थी। उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते बहुत सारे भारतीय यह महसूस करने लगे थे कि राष्ट्र के प्रति गर्व का भाव जगाने के लिए भारतीय इतिहास को अलग ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए। अंग्रेजों की नजर में भारतीय पिछड़े हुए और आदिम लोग थे जो अपना शासन खुद नहीं सँभाल सकते। इसके जवाब में भारत के लोगों ने अपनी महान उपलब्धियों की खोज में इतिहास की पुनर्व्याख्या करना प्रारम्भ किया। उन्होंने उस गौरवमयी प्राचीन युग के बारे में लिखना शुरू कर दिया जब कला और वास्तुशिल्प, विज्ञान और गणित, धर्म और संस्कृति, कानून और दर्शन, हस्तकला और व्यापार फल-फूल रहे थे। उनका कहना था कि इस महान युग के बाद पतन का समय आया और भारत को गुलाम बना लिया गया। इस राष्ट्रवादी इतिहास में पाठकों को अतीत में भारत की महानता व उपलब्धियों पर गर्व करने और ब्रिटिश शासन के तहत दुर्दशा से मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाने का आह्वान किया जाता था।
इतिहास की पुनर्व्याख्या की भी अपनी समस्या थी। इसमें जिस अतीत का गौरवगान किया जा रहा था वह हिंदुओं का अतीत था। जिन छवियों का सहारा लिया जा रहा था वे हिन्दू प्रतीक थे। इससे अन्य समुदायों के लोग अलग-थलग महसूस करने लगे थे।