महाराष्ट्र के भक्त संतों की विशेषता को जानने के लिये हमें 13वीं सदी से 17वीं सदी तक ध्यान देना होगा । भक्त संतों की परम्परा के जन्मदाता रामानुज थे जो दक्षिण भारत के थे। उन्हीं के उपदेशों को भक्त संतों ने पक्षिणभारत से लेकर महाराष्ट्र तक फैलाया । महाराष्ट्र में 13वीं सदी में नामदेव ने। भक्ति धारा को प्रवाहित किया, जिसे 17वीं सदी में तुकाराम ने आगे बढ़ाया।
इस बीच हम भक्त संतों की एक समृद्ध परम्परा को देखते हैं । इन भक्त संतों ने ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम के सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया । इन संतों ने धार्मिक आडम्बर, मूर्ति पूजा, तीर्थ व्रत, उपासना और कर्मकाण्डों का घोर विरोध किया और कहा कि यह सब कुछ नहीं, केवल दिखावा मात्र है।
इन्होंने आयों की वर्ण व्यवस्था को भी मानने से इंकार कर दिया और जाति-पाति, ऊंच-नीच के भेदभाव का घोर विरोध किया । इनके अनुयायियों ने सभी जाति के लोगों, महिलाओं और मुसलमानों को भी शामिल किया।
महाराष्ट्र के इन संतों ने भक्ति की यह परम्परा पंढरपुर में विट्ठल स्वामी को जन-जन के ईश्वर और आराध्य के रूप में स्थापित किया । ये विठ्ठल स्वामी विष्णु के ही एक रूप श्रीकृष्ण थे । महाराष्ट्रीय भक्त संतों की रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों पर करारा प्रहार किया गया । इन्होंने सभी वर्गों, जातियों, यहाँ तक कि अंत्यज कहे जाने वाले दलितों को भी समान दृष्टि से देखा । इन भक्त संतों ने अपने अभंग द्वारा सामाजिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया।
संत तुकाराम ने अपने अभंग में लिखा
जो दीन-दुखियों, पीड़ितों को
अपना समझता है वही संत है क्योंकि ईश्वर उसके साथ है।