राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति के कारण राजस्थान में 1857 ई. की क्रांति के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) कम्पनी का राज्यों के आंतरिक शासन में हस्तक्षेपकंपनी के इस आश्वासन के बावजूद कि वे राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, अंग्रेज राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप करने लगे, जैसे-1839 ई में जोधपुर के किले पर अधिकार करना; मांगरोल के युद्ध में कोटा महाराव के विरुद्ध दीवान जालिम सिंह की मदद करना, मेवाड़ प्रशासन में बार-बार हस्तक्षेप करना। इस प्रकार अंग्रेजों ने राजाओं की प्रभुसत्ता को समाप्त कर उन्हें अपनी कृपा दृष्टि पर निर्भर बना दिया।
(2) राज्यों में उत्तराधिकार के प्रश्न पर असंतोषनिःसंतान राजाओं द्वारा गोद लेने सम्बन्धी मामलों में कम्पनी ने अपना निर्णय देशी रियासतों पर लादने की कोशिश की जिसमें 1826 ई. में अलवर राज्य में हस्तक्षेप कर अलवर राज्य के दो हिस्से करवा दिए। 1826 ई. में ही भरतपुर के लोहागढ़ दुर्ग को नष्ट कर पॉलिटिकल एजेण्ट के अधीन काउन्सिल की नियुक्ति की, 1844 ई. में बांसवाड़ा महारावल लक्ष्मणसिंह की नाबालिगी के कारण अंग्रेजी नियंत्रण की स्थापना आदि के कारण कम्पनी सरकार के विरुद्ध राजाओं में असंतोष की भावना बलवती होती गई।
(3) सामान्य जनता की अप्रसन्नता-राजस्थान में सामान्य जनता की भावना अंग्रेजों के विरुद्ध चरम पर थी। अंग्रेजों की अपनी धर्म प्रचार नीति, सामाजिक सुधार एवं आर्थिक नीतियों को यहाँ की जनता ने अपने धर्म व जीवन में अंग्रेजी हस्तक्षेप की संज्ञा दी। इसका स्पष्ट उदाहरण है-गजी व जवाहरजी द्वारा नसीराबाद की सैनिक छावनी को लूटना आम जनता में प्रसन्नता का कारण बनना।
(4) राज्यों के आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप-अंग्रेज कंपनी ने राज्यों के साथ खिराज वसूलने की प्रथा द्वारा आर्थिक शोषण की नीति लागू कर दी। इसके अतिरिक्त राज्यों में शांति-व्यवस्था स्थापित करने एवं विभिन्न सैनिक छावनियों की स्थापना कर इन सभी के रख-रखाव का खर्चा संबंधित राज्यों से वसूल किया गया।
(5)सामन्तों की मनोदशा-1818 की संधियों के पश्चात् राज्य के शासकों की सामन्तों पर निर्भरता प्रायः समाप्त हो गई। सामन्त अपनी दु:खद स्थिति का उत्तरदायी मुख्यतः
अंग्रेजों को ही मानते थे। आउवा, कोठारिया और सलूम्बर ठिकाने इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
(6) तात्कालिक कारण-भारत में 1857 ई. की क्रांति का तात्कालिक कारण एनफील्ड राइफलों में प्रयुक्त कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाना था, जिन्हें प्रयोग में लेने से पहले मुँह से खोलना पड़ता था।