17वीं तथा 18वीं सदी में छोटे तथा गरीब किसानों के पास छोटे-छोटे खेत तो थे, परन्तु वे खेत परिवार के सदस्यों का पेट नहीं भर सकते थे। इसलिए जब शहरी सौदागर उनके पास आए और उन्होंने उत्पादन के लिए पेशगी धनराशि दी तो किसान उनके लिए काम करने को तुरन्त तैयार हो गए।