आर्थिक सुधारों के अंतर्गत वे सभी तरीके शामिल है जो भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए 1991 में अपनाए गए। इन सुधारों का मुख्य बल अर्थव्यवस्था की उत्पादकता और कुशलता में वृद्धि के लिए एक प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण का निर्माण करने पर है। हमारे देश में आर्थिक सुधारों का प्रारंभ विदेशी व्यापार की प्रतिकूलता तथा विभिन्न कारणों से देश में उत्पन्न विदेशी विनिमय के गंभीर संकट की पृष्ठभूमि में हुआ था। अतएव, आर्थिक सुधार की नीतियों में व्यापार एवं पूँजी प्रवाह संबंधी सुधारों को विशेष महत्व दिया गया है।
विगत वर्षों के अंतर्गत एशिया के कई कम विकसित देशों के तीव्र विकास से यह स्पष्ट हो गया है कि प्रशुल्क एवं व्यापार अवरोधों में कमी होने से निर्यात के साथ ही घरेलू बाजार के लिए उत्पादन बढ़ता है। इससे निर्यातों में वृद्धि होती है और आर्थिक संवृद्धि की दर तीव्र होती है। यही कारण है कि जुलाई 1991 से सरकार ने व्यापार के क्षेत्र में ऐसे कई सुधार किए हैं जो हमारे देश को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ने में सहायक हुए हैं। इनमें रुपये का अवमूल्यन, व्यापार मंद में और इसके पश्चात चालू मद में रुपये की पूर्ण परिवर्तनशीलता, आयात प्रणाली का उदारीकरण, प्रशुल्क-दरों में कटौती तथा निर्यात-वृद्धि के लिए अपनाए गए उपाय महत्वपूर्ण हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (direct foreign investment) द्वारा सरकार ने पूँजी प्रवाह के अवरोधों को दूर करने का प्रयास किया है।
इस प्रकार, भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की दृष्टि से 1991 में प्रारंभ किए गए आर्थिक सुधार अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने आर्थिक विकास के लिए जो नीति अपनाई उसमें कई दोष थे। इस नीति के अंतर्गत देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र को आवश्यकता स अधिक महत्व दिया गया था, निजी निवेश एवं आयात-निर्यात पर कई प्रकार के नियंत्रण और प्रतिबंध लगाए गए थे तथा केंद्रीय नियोजन की नीति अपनाई गई थी। यह नीति लगभग 40 वर्षों तक लागू रही तथा बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया। इसका भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसी समय कुछ अन्य घटनाएँ भी हुई जिनसे हमारा आर्थिक संकट और बढ़ गया।
इनमें सोवियत संघ का विघटन, खाड़ी युद्ध, सरकार के बजट, राजकोषीय घाटे ने अत्यधिक वृद्धि आदि महत्वपूर्ण थे। इसके फलस्वरूप; हमारे विदेशी व्यापार की प्रतिकूलता बहुत बढ़ गई और देश के सामने विदेशी विनिमय का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। अतः, जुलाई 1991 में भारत सरकार द्वारा आर्थिक नीति में सुधार की रणनीति अपनाई गई। इस नीति को नवीन आर्थिक नीति की संज्ञा दी गई तथा उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण इसके प्रमुख अंग हैं। यही कारण है इस नीति को उदारीकरण, निजीकरण एव वैश्वीकरण(liberalisation, privatisation and globalisation, LPG) की नीति भी कहते हैं।