आदिवासी समुदाय बाजार और व्यापारियों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगे थे। इसे रेशम के व्यापार के निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है-
(1) अठारहवीं सदी में भारतीय रेशम की यूरोपीय बाजारों में भारी माँग थी। भारतीय रेशम की अच्छी गुणवत्ता सबको आकर्षित करती थी अतः ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी इस माँग को पूरा करने के लिए रेशम उत्पादन पर जोर देने लगे।
(2) वर्तमान झारखण्ड में स्थित हजारीबाग के आस-पास रहने वाले संथाल रेशम के कीड़े पालते थे। (3) रेशम के व्यापारी अपने ऐजेंटों को भेजकर आदिवासियों को कर्जे देते थे और उनके कृमिकोषों को इकट्ठा कर लेते थे। एक हजार कृमिकोषों के लिए 3-4 रुपए मिलते थे।
(4) इसके बाद इन कृमिकोषों को बर्दवान या गया भेज दिया जाता था जहाँ उन्हें पाँच गुना कीमत पर बेचा जाता था।
(5) इससे निर्यातकों और रेशम उत्पादकों के बीच कड़ी का काम करने वाले बिचौलियों को अत्यधिक मुनाफा होता था तथा रेशम उत्पादकों को बहुत मामूली फायदा ही मिलता था। यह स्थिति लगभग सभी प्रकार के उत्पादों के लिए थी।
अतः सारे आदिवासी समुदाय बाजार और व्यापारी समुदाय बाजार और व्यापारियों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगे थे।