दो महायुद्धों के बीच आर्थिक अनुभवों से सीख लेकर अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने आर्थिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए दो उपाय सुझाव ये थे- (i) आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए आवश्यक सरकारी हस्तक्षेप तथा (ii) अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों को सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका। इसे कार्यान्वित करने की प्रक्रिया पर विचार-विमर्श करने के लिए जुलाई 1944 में अमेरिका के न्यू हैम्पशायर में बबन वुड्स नामक स्थान पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया। विचार-विमर्श करने के बाद दो संस्थाओं का गठन किया गया। इनमें पहला अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) था और दूसरा अंतराष्ट्रीय पुनर्निमाण एवं विकास बैंक अथवा विश्व बैंक (World Bank)। इन दोनों संस्थानों को ‘ब्रेटन वुड्स ट्विन’ या ‘क्रेटनवुड्स की जुड़वाँ संतान’ कहा गया।
आई. एम. एफ. ने अंतराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था और राष्ट्रीय मुद्राओं तथा मौद्रिक व्यवस्थाओं को जोड़ने की व्यवस्था की। इसमें राष्ट्रीय मुद्राओं के विनिमय की दर अमेरिकी मुंद्रा ‘डॉलर’ के मूल्य पर निर्धारित की गयी। डॉलर का मूल्य भी सोने के मूल्य से जुड़ा हुआ था। विश्व बैंक चने विकसित देशों को पुनर्निर्माण के लिए कर्ज के रूप में पूँजी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की। इसी आधार पर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को नियमित करने का प्रयास किया गया। ब्रेटनवुड्स संस्थानों ने औपचारिक रूप से 1947 से काम करना आरंभ कर दिया। इन संस्थानों के निर्णयों पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियंत्रण स्थापित किया गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को अई. एम. एफ. और विश्व बैंक के किसी भी निर्णय पर निषेधाधिकार (वीटो) प्रदान किया गया।