कैरीबियाई क्षेत्र में काम करनेवाले गिरमिटिया मजदूरों की जिंदगी पर प्रकाश डालें। अपनी पहचान बनाए रखने के लिए उन लोगों ने क्या किया ?
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गिरमिटिया मजदूर ऐसे मजदूरों को कहा जाता था जिन्हें विदेशों में काम करने के लिए एक अनुबंध अथवा एग्रीमेंट के अंतर्गत ले जाया गया। इन मजदूरों को कृषि, खाद्यानों, सड़क और रेल निर्माण कार्यों में लगाया गया। भारत से अधिकांश अनुबंधित श्रमिक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु से ले जाए गए। भारत से श्रमिक मुख्यतः कैरीबियाई द्वीप समूह में स्थित त्रिनिदाद गुयाना, और सूरीनाम ले जाए गए। बहुतेरे जमैका, मॉरीशस एवं फिजी भी ले जाए गए। हालाकि ब्रिटिश सरकार ने 1921 में गिरिमिटिया श्रमिकों की व्यवस्था समाप्त कर दी।

इस प्रथा के समाप्त होने के बाद भी दशकों तक अनुबंधित मजदूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में कष्टदायक और अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने को विवश किए गए। गिरमिटिया मजदूर सुखी-संपन्न जीवन की उम्मीद में अपना घर द्वार छोड़कर काम करने जाते थे लेकिन कार्य स्थल पर पहुँचकर उनका स्वप्न भंग हो जाता था। बागानों अथवा अन्य कार्यस्थलों पर उनका जीवन कष्टदायक था। उन्हें एक प्रकार की दासता की जंजीरों में जकड़ दिया गया था। इस स्थिति से ऊबकर अनेक मजदूर काम छोड़कर भागने का प्रयास करते थे परंतु मालिक के चंगुल से बच निकलना आसान नहीं था। पकड़े जाने पर उन्हें कठोर दंड दिया जाता था।

इस स्थिति स रहते हुए आप्रवासी भारतीयों ने जीवन की राह ढूँढी जिससे वे सहजता से नए परिवेश में खप सकें। इसके लिए उन लोगों ने अपनी मूल संस्कृति के तत्वों तथा नए स्थान के सांस्कृतिक तत्वों का सम्मिश्रण कर एक नई संस्कृति का विकास कर लिया। इसके द्वारा उन लोगों ने अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक पहचान बनाए रखने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए त्रिनिदाद में गिरमिटिया श्रमिकों ने वार्षिक मुहर्रम के जुलूस को एक भव्य उत्सव और मेले के रूप में परिवर्तित कर दिया।

इस मेले का नाम उन लोगों ने ‘होसे मेला रखा। यह मेला सांप्रदायिक एकता और सद्भावना का प्रतीक बन गया। इसमें त्रिनिदाद में रहने वाले सभी धर्मों और नस्लों के श्रमिक भाग लेते थे। इसी प्रकार त्रिनिदाद और गुयाना में विख्यात ‘चटनी म्यूजिक’ में भी स्थानीय और भारतीय संगीत के तत्वों का मिश्रण कर आप्रवासी भारतीयों ने इसे बनाया। इस प्रकार आप्रवासी भारतीयों ने कैरीबियाई द्वीप समूह के सांस्कृतिक तत्वों को अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखते हुए भी आत्मसात करने का प्रयास किया।
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