लोकतंत्र में आर्थिक समानता की अवधारणा लोकतांत्रिक व्यवस्था राजनीतिक समानता पर आधारित होती है। प्रतिनिधियों के चुनाव में हर व्यक्ति का वजन बराबर होता है, क्योंकि व्यक्तियों को राजनीतिक क्षेत्र में परस्पर बराबरी का दर्जा मिल जाता है, लेकिन लोकतंत्र में आर्थिक समानता की स्थापना नहीं हो पाती है।
लोकतंत्र में हम आर्थिक असमानता को बढ़ता हुआ पाते हैं। मुट्ठीभर धन-कुबेर आय और सम्पत्ति में अपने अनुपात से ज्यादा हिस्सा पाते हैं । देश की कुल आय में उनका हिस्सा बढ़ता गया है। समाज के सबसे निचले हिस्से के लोगों को जीवन बसर करने के लिए काफी कम साधन मिलते हैं। उनकी आमदनी गिरती गई है। कई बार उन्हें भोजन, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज जैसी बुनियादी जरूरतें पूरा करने में मुश्किल आती है।
वास्तविक जीवन में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आर्थिक असमानताओं को कम करने में ज्यादा सफल नहीं रही हैं। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों में ऊपरी 20 फीसदी लोगों का ही कुल राष्ट्रीय आय के लगभग 60 फीसदी हिस्से पर कब्जा है जबकि नीचे के 20 फीसदी लोग राष्ट्रीय आय के मात्र 3 फीसदी हिस्से पर जीवन-बसर करते हैं। डेनमार्क और हंगरी जैसे देशों में भी ऊपर के 20% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का लगभग 35% हिस्सा है, जबकि नीचे के 20% लोगों के पास 10% हिस्सा ही है।
लोकतंत्र में गरीब वर्ग के आगे हमेशा अवसरों की असमानता बरकरार रहती है।
अतः आय के समान वितरण और आर्थिक प्रगति के आधार पर देखें तो लोकतंत्र में आर्थिक समानता की स्थिति अच्छी नहीं रही है। वह आर्थिक असमानताओं को कम करने में अधिक सफल नहीं रहा है। आर्थिक संवृद्धि का काम सबको बराबर नहीं मिलता है।