निम्नलिखित को समझाइए$-$
$(i)$ टॉलुईन का इलेक्ट्रॉनस्नेही क्लोरीनीकरण $($प्रतिस्थापन$)$
$(ii)$ ऐल्केनों का मुक्तमूलक हैलोजेनीकरण।
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$(i)$ इलेक्ट्रॉनस्नेही $($इलेक्ट्रॉन रागी$)$ प्रतिस्थापन द्वारा$-$ एरिल हैलाइडों का विरचन जब बेन्जीन, टॉलूईन इत्यादि की क्रिया $Fe$ या $FeCl_3 ($लुईस अम्ल$)$ की उपस्थिति में $CI_2$ या $Br_2$ से करवाई जाती है तो वलय के हाइड्रोजन का प्रतिस्थापन हैलोजेन द्वारा हो जाता है। यह एक इलेक्ट्रॉनस्नेही प्रतिस्थापन अभिक्रिया है तथा इससे एरिल हैलाइड प्राप्त होते हैं।
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अभिक्रिया से बने आर्थो तथा पैरा समावयवियों के गलनांकों में अधिक अंतर होने के कारण इन्हें आसानी से पृथक् किया जा सकता है।
फ्लुओरीन बहुत अधिक क्रियाशील होती है अतः इस विधि से फ्लुओरो व्युत्पन्न नहीं बना सकते तथा आयोडीन के साथ अभिक्रिया उत्क्रमणीय होने के कारण प्राप्त HI को ऑक्सीकृत करने के लिए
$HNO_3$ या $HIO_3$ प्रयुक्त किया जाता है।
$(ii)$ ऐल्केनों के मुक्त मूलक हैलोजेनीकरण द्वारा $-$ सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में ऐल्केनों की $CI_2$ या $Br_2$ से क्रिया करवाने पर समावयवी मोनो तथा पॉली हैलोऐल्केनों का मिश्रण बनता है। अतः किसी एक यौगिक की लब्धि कम होती है तथा इस मिश्रण को पृथक् करना मुश्किल होता है।
इस अभिक्रिया के लिए हाइड्रोजन परमाणुओं के प्रतिस्थापन का क्रम निम्नलिखित है-
$3^{\circ} H >2^{\circ} H >1^{\circ} H$
अतः प्रोपेन की क्लोरीन से क्रिया करवाने पर 2-क्लोरोप्रोपेन $(2^{\circ})$ अधिक मात्रा में प्राप्त होता है।​​​​​​​
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$97\%, 2-$ब्रोमो प्रोपेन प्राप्त होने का कारण ब्रोमीन की वरणशीलता $($Selectivity$)$ है। ऐल्केनों के हैलोजेनीकरण में विभिन्न हैलोजनों की क्रियाशीलता निम्न क्रम में होती है$- F _2> Cl _2> Br _2> I _2$
फ्लुओरीनीकरण विस्फोटक होता है जबकि आयोडीनीकरण बहुत धीमी गति से होता है अतः यह एक उत्क्रमणीय अभिक्रिया है। इसलिए इसे आयोडिक अम्ल $(HIO_3)$ की उपस्थिति में करवाया जाता है। जो कि अभिक्रिया से प्राप्त $HI ($अपचायक$)$ से क्रिया करके $I_2$ तथा $H_2O$ बना देता है ताकि यह पुनः $R-I$ से क्रिया करके ऐल्केन न बना सके तथा प्राप्त $I_2$ पुनः अभिक्रिया को अग्र दिशा में ले जाने में सहायक होती है।
$CH _4+ I _2 \xrightarrow{ HIO _3} CH _3 I + HI$
$5 HI + HIO _3 \longrightarrow 3 I _2+3 H _2 O$
$\qquad$ ऑक्सीकारक
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