राजस्थान में भील व मीणा जैसी जनजातियाँ प्राचीन काल से निवास करती रही हैं। दक्षिणी राजस्थान में भीलों की बाहुल्यता है, जबकि जयपुर एवं आस-पास के क्षेत्रों में मीणा जाति का बाहुल्य है। अंग्रेजी काल में इन जनजातियों का भारी शोषण किया गया, उसी समय कुछ जनसेवकों एवं समाज सुधारकों ने इनमें जागृति उत्पन्न की। इन्होंने अपने अधिकारों हेतु आंदोलन किए, जो कि निम्नलिखित हैं
1. भील आंदोलन: भील जनजाति में जागृति की विचारधारा का सूत्रपात करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका गोविंद गुरु की रही। उन्होंने संप सभा की स्थापना की और भीलों को एकजुट किया। उन्होंने बेगार व अनुचित लागते न देने हेतु भीलों का आह्वान किया। सन् 1913 में मानगढ़ पहाड़ी पर आश्विन सुदी पूर्णिमा को संप सभा का अधिवेशन किया जा रहा था तब अंग्रेजी सिपाहियों ने पहाड़ी को चारों तरफ से घेरकर अंधाधुंध गोलियां चलाईं। परिणामत: घटनास्थल पर ही हजारों की संख्या में भील आदिवासी मारे गये और अनगिनत घायल हुए, गोविन्द गुरु के पैर में गोली लगी। इस घटना की सर्वत्र निंदा हुई तथा इसे जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के समतुल्य माना गया । क्योंकि गोविंद गुरु के अनुयायियों को भगत कहा जाता था, अतः इस आंदोलन को भगत आंदोलन भी कहा गया।
आदिवासी समुदाय के दूसरे मसीहा थे मोतीलाल तेजावत । उन्होंने चित्तौड़गढ़ के मातृकुण्डीयां में किसानों व आदिवासियों को बेगार, लगान, अत्याचार आदि के विरुद्ध संघर्ष हेतु जागृत किया। आंदोलन को गति देने के लिए एकता पर बल दिया गया, अतः इसे एकी आंदोलन भी कहा गया। इस आंदोलन के तहत हजारों आदिवासी उदयपुर में एकत्रित हुए तथा महाराणा को 21 सूत्रीय मांगपत्र दिया, इस मांगपत्र को मेवाड़ की पुकार' के नाम से जाना जाता है। महाराणा ने तत्काल 18 माँगें मान लीं।
बाँसवाड़ा, देवल और डूंगरपुर में भीलों को संगठित करने में भोगीलाल पंड्या तथा हरिदेव जोशी की भी महती भूमिका रही।
2. मीणा आंदोलन: प्रारम्भ में अंग्रेजी शासन ने मीणा जनजाति के एक विशेष वर्ग को शांति व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दे रखी थी। अत: ये मीणा लोग गाँवों की चौकीदारी करते थे। इस तरह के मीणाओं को 'चौकीदार मीणा' कहा जाता था। आगे चलकर, राज्य में होने वाली चोरी-डकैती के लिए अक्सर इन मीणाओं को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा और कोई चोरी हुआ माल बरामद न होने पर उस माल की कीमत मीणाओं से वसूली जाने लगी। अंग्रेजी सरकार ने 1924 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के तहत 12 वर्ष से अधिक आयु के मीणा जाति के लोगों को प्रतिदिन समीप के थाने में अपनी उपस्थिति देने हेतु पाबंद कर दिया। इस कानून एवं व्यवहार से मीणाओं में असंतोष व रोष व्याप्त हो गया। मीणा समाज में व्याप्त विभिन्न बुराइयों का निराकरण करने, जरायम पेशा जैसे कठोर कानून को हटवाने और चौकीदारी प्रथा समाप्त करने के लिए आंदोलन चलाया गया। लगातार कोशिशों के परिणामस्वरूप आजादी के बाद सन् 1952 में जाकर जरायम पेशा कानून समाप्त किया जा सका।