उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक गैर-ब्राह्मण जातियों के भीतर से भी लोग जातीय भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने लगे थे। उन्होंने सामाजिक समानता और न्याय की माँग करते हुए आन्दोलन शुरू कर दिए थे -
(1) सतनामी आंदोलन- मध्य भारत में सतनामी आन्दोलन इसी का एक उदाहरण है। यह आन्दोलन घासीदास ने शुरू किया था। उन्होंने चमड़े का काम करने वालों को संगठित किया और उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आन्दोलन छेड़ दिया।
(2) मतुआ पंथ- पूर्वी बंगाल में हरिदास ठाकुर के मतुआ पंथ ने दलित काश्तकारों के बीच काम किया। हरिदास ने जाति व्यवस्था को सही ठहराने वाले ब्राह्मणवादी ग्रन्थों पर सवाल उठाया।
(3) श्री नारायण गुरु का एकता का आदर्श- केरल में ऐझावा निम्न जाति के श्री नारायण गुरु ने अपने लोगों के बीच एकता का आदर्श रखा। उन्होंने प्रेरणा दी कि उनके पंथ में जाति-भेदभाव नहीं होने चाहिए और सभी को एक गुरु में (यानी कि उनमें) विश्वास रखना चाहिए।
(4) सत्यशोधक समाज- महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज ने जातीय समानता के समर्थन में कार्य किया।
इन सभी पंथों अथवा संगठनों की स्थापना ऐसे लोगों ने की थी जो गैर-ब्राह्मण जातियों से थे और उनके बीच ही काम करते थे। उन्होंने ऐसी आदतों और तौर-तरीकों को बदलने का प्रयास किया जो प्रभुत्वशाली जातियों को अपमान करने के लिए उकसाती थीं। उन्होंने दलितों में स्वाभिमान का भाव पैदा करने का प्रयास किया।