नील की खेती के तरीके- नील की खेती के दो मुख्य तरीके थे-निज और रैयती। यथा - नील उत्पादन की निज व्यवस्था-
(1) इस व्यवस्था के तहत बागान मालिक अपने स्वयं के नियंत्रण वाली जमीनों पर नील की खेती करते थे।
(2) बागान मालिक जमीन या तो खरीदते थे या जमींदारों से पट्टे पर लेते थे तथा मजदूरों द्वारा उन पर स्वयं खेती करवाते थे।
नील उत्पादन की रैयती व्यवस्था - रैयती व्यवस्था के तहत बागान मालिक रैयतों के साथ एक अनुबंध करते थे। कई बार वे गाँव के मुखियाओं को भी रैयतों की तरफ से समझौता करने को बाध्य कर देते थे। जो अनुबंध पर दस्तखत कर देते थे, उन्हें नील उगाने के लिए कम ब्याज दर पर मालिकों से नकद कर्ज मिल जाता था। कर्जा लेने वाले रैयत को भी कम से कम 25 प्रतिशत जमीन पर नील की खेती करनी होती थी। बागान मालिक बीज और उपकरण मुहैया कराते थे, जबकि मिट्टी को तैयार करने, बीज बोने और फसल की देखभाल का जिम्मा काश्तकार का होता था। कटाई के बाद फसल बागान मालिक को सौंप दी जाती थी।
बागान मालिकों द्वारा निज खेती के तहत क्षेत्र के विस्तार में अरुचि दिखाने के कारण-
(1) नील की खेती के लिए एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता होती थी जो उपलब्ध नहीं था।
(2) वे अपनी फैक्टरी के नजदीक ही जमीन पट्टे पर लेना चाहते थे। इन खेतों पर पहले से काम कर रहे किसानों से खेत खाली कराने के लिए उन्हें कई बार संघर्ष करना पड़ता था।
(3) नील तथा धान की खेती का एक ही समय होता था, फलतः आवश्यक संख्या में मजदूर नहीं मिल पाते थे।
(4) बड़े स्तर पर निज खेती के लिए बहुत अधिक संख्या में हल-बैल की आवश्यकता होती है जिस पर बहुत अधिक धन खर्च होता था।