बहसंख्यकवाद-बहुसंख्यकवाद वह स्थिति है जिसमें बहुसंख्यक समुदाय अपने मनचाहे ढंग से देश का शासन कर सकता है और इसके लिए वह अल्पसंख्यक समुदाय की जरूरत या इच्छाओं की अवहेलना कर सकता है।
श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद का उद्भव-सन् 1948 में श्रीलंका के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के साथ ही वहाँ बहुसंख्यकवाद का उद्भव होना शुरू हो गया। सिंहली समुदाय के नेताओं ने अपनी बहुसंख्या के बल पर शासन पर प्रभुत्व जमाना, चाहा। इस वजह से लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपनी बहुसंख्यक-परस्ती के तहत निम्न प्रमुख कदम उठाए-
1956 में एक कानून बनाया गया जिसके तहत तमिल भाषा की उपेक्षा करते हुए सिंहली को एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया गया।
विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देने की नीति चलाई गई।
नए संविधान में यह प्रावधान भी किया गया कि सरकार बौद्ध मत को संरक्षण और बढ़ावा देगी।
श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद से उत्पन्न समस्याएँ-
श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद के चलते इन सरकारी फैसलों ने श्रीलंकाई तमिलों की नाराजगी और शासन को लेकर उनमें बेगानापन बढ़ाया।
उन्हें लगा कि बौद्ध धर्मावलंबी सिंहलियों के नेतृत्व वाली सारी राजनीतिक पार्टियाँ उनकी भाषा और संस्कृति को लेकर असंवेदनशील हैं।
उन्हें लगा कि संविधान और सरकार की नीतियाँ उन्हें समान राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर रही हैं।
नौकरियों और फायदे के अन्य कामों में उनके साथ भेदभाव हो रहा है और उनके हितों की अनदेखी की जा रही है।
परिणाम-
श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद के कारण तमिल और सिंहली समुदायों के संबंध बिगड़ते चले गए।
श्रीलंकाई तमिलों ने अपनी राजनीतिक पार्टियाँ बनाईं और तमिल को राजभाषा बनाने, क्षेत्रीय स्वायत्तता हासिल करने तथा शिक्षा और रोजगार में समान अवसरों की माँग को लेकर संघर्ष किया।
1980 के दशक तक उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में स्वतंत्र तमिल ईलम (सरकार) बनाने की माँग को लेकर अनेक राजनीतिक संगठन बने।
श्रीलंका में दो समुदायों के बीच का यह टकराव गृहयुद्ध में परिणत हुआ। परिणामस्वरूप दोनों पक्ष के हजारों लोग मारे गये।
अनेक परिवार अपने मुल्क से भागकर शरणार्थी बन गए।
लाखों लोगों की रोजी-रोटी चौपट हो गई।
गृहयुद्ध से श्रीलंका के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में काफी परेशानियाँ पैदा हुई हैं। 2009 में इस गृहयुद्ध का अंत हुआ।