औद्योगीकरण की प्रक्रिया-उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में औद्योगीकरण की गति धीमी थी। इसलिए इतिहासकारों का मानना है कि उन्नीसवीं सदी के मध्य का औसत मजदूर मशीनों पर काम करने वाला नहीं, बल्कि परम्परागत कारीगर और मजदूर ही था। साथ ही औद्योगीकरण का अर्थ केवल फैक्ट्री उद्योगों के विकास तक ही सीमित नहीं होता है। इस तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित उदाहरणों से होती है-
(1) सूती उद्योग, कपास उद्योग का विकास सूती उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे अधिक विकसित उद्योग थे। कपास उद्योग का तीव्र गति से विकास हो रहा था और यह उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था।
(2) परम्परागत उद्योगों का महत्त्व–नये उद्योग परम्परागत उद्योगों को इतनी सरलता से पीछे नहीं धकेल सकते थे। अब भी परम्परागत उद्योगों का महत्त्व बना हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में भी तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों में 20 प्रतिशत से अधिक नहीं थी। यद्यपि वस्त्र उद्योग एक गतिशील उद्योग था, परन्तु उसका अधिकतर उत्पादन कारखानों में न होकर घरेलू इकाइयों में होता था।
(3) परम्परागत उद्योगों की उन्नति–परम्परागत उद्योग पूरी तरह गतिहीन नहीं थे। खाद्य संस्करण, निर्माण, पॉटरी, कांच उद्योग, चर्म शोधन, फर्नीचर और औजारों के उत्पाद जैसे अनेक गैर-मशीनी क्षेत्रों में उन्नति हो रही थी।
(4) प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों की धीमी गति-प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों की गति धीमी थी। इसका कारण यह था कि नई तकनीक महँगी थी। सौदागर एवं व्यापारी बड़ी सावधानीपूर्वक उसका प्रयोग करने के पक्ष में थे।