भारत के स्वतंत्रता संग्राम में
महात्मा गाँधी की भूमिका
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) रॉलट सत्याग्रह- गाँधीजी ने अंग्रेजों द्वारा 1919 में पारित किए गए रॉलट कानून के विरुद्ध सत्याग्रह का आह्वान किया क्योंकि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता था। गाँधीजी ने लोगों से इस कानून का अहिंसक विरोध करने तथा हड़तालें करने का आह्वान किया। फलस्वरूप अप्रैल, 1919 में देश में जगह-जगह जुलूस निकाले गए तथा हड़तालें की गईं। सरकार ने इसके विरोध में दमन चक्र चलाया और इसी के तहत 13 अप्रेल को 'जलियांवाला हत्याकांड' घटित हुआ।
(2) खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन - 1920 में अंग्रेजों द्वारा तुर्की के सुलतान के अपमान से भारतीय मुसलमान अंग्रेजी सरकार के खिलाफ थे और जलियांवाला हत्याकांड से भारतीय नेता व्यथित थे। गाँधीजी ने मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन का समर्थन करते हुए असहयोग आंदोलन चलाया। 1921-22 के दौरान यह आंदोलन व्यापक हो गया। विद्यार्थी, वकील, शिक्षक आदि इसमें शामिल हुए और ब्रिटिश शासन व विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। लेकिन 1922 में चौरी-चौरा की हिंसक घटना के बाद इस आंदोलन को गाँधीजी ने वापस ले लिया क्योंकि वे हिंसक आंदोलन के विरुद्ध थे।
(3) सविनय अवज्ञा आंदोलन और दांडी मार्च- असहयोग आंदोलन के समाप्त होने के बाद गाँधीजी ने गाँवों में व्यापक सामाजिक कार्य किया। इससे काँग्रेस का जनाधार व्यापक हो गया। 1930 में गाँधीजी ने पूर्ण स्वराज के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन किया और 240 किमी. की पैदल यात्रा कर दांडी में नमक कानून को तोड़ा। इस आंदोलन में किसानों, आदिवासियों और महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। इसके परिणामस्वरूप 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट पारित किया गया।
(4) भारत छोड़ो आंदोलन- 1942 में गाँधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू करते हुए भारतीय जनता को 'करो या मरो' का आह्वान किया। अंग्रेजी दमन चक्र के चलते हुए भी यह आंदोलन फैलता गया। यह एक व्यापक जन आंदोलन में परिणत हो गया। अन्ततः इस आंदोलन ने ब्रिटिश राज को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।