1945 में विश्व युद्ध खत्म होने के बाद अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस और लीग से बातचीत शुरू कर दी। लेकिन यह वार्ता असफल रही क्योंकि लीग का कहना था कि उसे भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाए। कांग्रेस इस दावे को मंजूर नहीं कर सकती थी क्योंकि बहुत सारे मुसलमान अभी भी उसके साथ थे। उसे भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाए। कांग्रेस इस दावे को मंजूर नहीं कर सकती थी क्योंकि बहुत सारे मुसलमान अभी भी उसके साथ थे।
इस प्रकार 1945 तक मुस्लिम जनता में मुस्लिम लीग के बढ़ते सामाजिक आधार और कांग्रेस की मुस्लिम जनता को अपने साथ लामबंद करने की असफलता से लीग की आकांक्षाएँ प्रबल हो गई थीं।
दूसरे, 1946 के दोबारा प्रान्तीय चुनावों में मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर बेजोड़ सफलता मिली और लीग पाकिस्तान की माँग पर अड़ने लगी।
तीसरे, 1946 में ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्र भारत के लिए एक सही राजनीतिक बंदोबस्त सुझाने के लिए तीन सदस्यीय परिसंघ भारत भेजा जिसने यह सुझाव दिया कि भारत अविभाजित रहे और उसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कुछ स्वायत्तता देते हुए ढीले-ढाले महासंघ के रूप में प्रस्तुत किया जाए। लेकिन कांग्रेस और लीग दोनों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अतः विभाजन अब अवश्यंभावी हो गया।
चौथे, कैबिनेट मिशन की विफलता के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी माँग मनवाने के लिए जन आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया। उसने 16 अगस्त, 1946 को 'प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस' मनाने का आहृवान किया। जिससे कलकत्ता में दंगे भड़क गए और मार्च, 1947 तक उत्तर- भारत के विभिन्न भागों में भी हिंसा फैल गई। अतः पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कराने के लिए ही मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का आह्वान किया था।