भारत में पाई जाने वाली मृदाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिये।
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मदाओं का वर्गीकरण
भारत में अनेक प्रकार के उच्चावच, भू-आकृतियाँ, जलवायु और वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप निम्नलिखित मृदाएँ पाई जाती हैं-
(1) जलोढ़ मृदा- यह देश की महत्त्वपूर्ण मृदा है जो कि विस्तृत रूप से फैली हुई है। सम्पूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। जलोढ़ मृदाएँ हिमालय के तीन महत्त्वपूर्ण नदी तंत्रों यथा-सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए जमावों से बनी हैं। एक संकरे गलियारे द्वारा ये मृदाएँ राजस्थान और गुजरात तक फैली हैं। पूर्वी तटीय मैदान, विशेषकर महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टे भी जलोढ़ मृदा से बने हैं। इसके दो प्रकार हैं(i) बांगर और (ii) खादर।
(2) काली मृदा- इन मृदाओं का काला रंग होता है तथा इनको 'रेगर' मृदाओं के नाम से भी जाना जाता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए उत्तम होती है तथा इनको 'काली कपास मृदा' के नाम से भी जाना जाता है।
काली मृदाएँ महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार पर पाई जाती हैं तथा दक्षिणी-पूर्वी दिशा में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली हैं।
(3) लाल और पीली मृदा- लाल मृदा दक्कन के पठार के पूर्वी और दक्षिणी भागों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में विकसित हुई है। लाल और पीली मृदाएँ उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी पद पर पाई जाती हैं।
(4) लेटराइट- लेटराइट मृदा उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है। यह भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन का परिणाम है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम पाई जाती है। लेटराइट मृदा पर अधिक मात्रा में खाद और रासायनिक उर्वरक का प्रयोग करके ही खेती की जा सकती है।
लेटराइट मृदाएँ मुख्य रूप से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उड़ीसा तथा असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
(5) मरुस्थली मृदा- मरुस्थली मृदाओं का रंग लाल और भूरा होता है। ये मृदाएँ आमतौर पर रेतीली और लवणीय होती हैं। कुछ क्षेत्रों में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि झीलों से जल वाष्पीकृत करके खाने का नमक भी बनाया जाता है। इस मृदा में ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है।
(6) वन मृदा-इस प्रकार की मृदाएँ मुख्य रूप से उन पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जिन क्षेत्रों में पर्याप्त वर्षा-वन उपलब्ध हैं।
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