भारत में लैंगिक विषमता लैंगिक विषमता का आधार स्त्री-पुरुष की जैविक बनावट नहीं बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ हैं। भारत में लैंगिक विषमता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
1. श्रम का लैंगिक विभाजन-भारत में लड़के-लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता उनके मन में बैठा दी जाती है कि औरतों की मुख्य जिम्मेदारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने की है। श्रम के इस तरह के विभाजन का नतीजा यह हुआ कि औरतें तो घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गई हैं और बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्जे में आ गया है। इसी लैंगिक विषमता को दूर करने के लिए महिलाओं के शिक्षा तथा रोजगार के अवसर बढाने तथा व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की मांग उठाई है। इससे श्रम के लैंगिक विभाजन में सुधार हो रहा है।
2. पितृ प्रधान समाज-हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव होते हैं, उनका दमन होता है। यथा
महिलाओं की साक्षरता दर अभी भी पुरुषों से बहुत पीछे है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि माँ-बाप अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर बराबर खर्च करने के स्थान पर लड़कों पर ज्यादा खर्च करना पसन्द करते हैं। इस स्थिति के चलते अब भी ऊँची वेतन वाली और ऊँचे पदों पर पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है।
काम के हर क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है।
हमारे देश में लड़कियों का लिंग-अनुपात कम है जो लैंगिक विषमता के दृष्टिकोण को दर्शाता है।
महिलाओं का उत्पीड़न, शोषण और घरेलू हिंसा भी भारत में लैंगिक विषमता को दर्शाती है।
भारत में विधायिका में महिला प्रतिनिधित्व का बहुत कम होना भी लैंगिक विषमता का सूचक है।