छापेखाने के आगमन से पढ़ने की नई संस्कृति का विकास–छापेखाने के आगमन से एक नये पाठक वर्ग का उदय हुआ। छापेखाने के आविष्कार के कारण बड़े पैमाने पर पुस्तकों का छापना सम्भव हो गया। अतः अव पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई।
मौखिक संस्कृति से मुद्रित संस्कृति की ओर-पुस्तकों के आसानी से उपलब्ध होने से पढ़ने की एक नई संस्कृति विकसित हुई। अब तक सामान्य लोग मौखिक संसार में जीते थे। वे धार्मिक पुस्तकों का वाचन सुनते थे। 'गाथा-गीत' उन्हें पढ़कर सुनाए जाते थे और किस्से भी उनके लिए बोलकर पढ़े जाते थे। इस प्रकार ज्ञान का मौखिक लेन-देन ही होता था। अब पुस्तकें समाज के अधिकाधिक लोगों तक पहुँच सकती थीं। पहले की जनता श्रोता थी, परन्तु अब पाठक-जनता अस्तित्व में आ गई थी।
मुद्रित संस्कृति-पुस्तकें केवल साक्षर ही पढ़ सकते थे और यूरोप के अधिकांश देशों में बीसवीं सदी तक साक्षरता की दर सीमित थी। अतः प्रकाशकों के सम्मुख यह समस्या थी कि लोगों में छपी पुस्तकों के प्रति रुचि कैसे जगाएँ? अतः मुद्रकों ने लोकगीत और लोककथाएँ छापनी शुरू कर दीं। ऐसी पुस्तकें चित्रों से सुसज्जित होती थीं। फिर इन्हें सामूहिक ग्रामीण सभाओं में या शहरी शराबघरों में गाया-सुनाया जाता था।
इस प्रकार मौखिक संस्कृति मुद्रित संस्कृति में प्रविष्ट हुई और छपी सामग्री मौखिक रूप में प्रसारित हुई। मौखिक और मुद्रित संस्कृतियों के बीच की विभाजक रेखा क्षीण पड़ गई।