मुद्रण युग से पहले भारत की पांडुलिपियाँ-भारत में संस्कृत, अरबी, फारसी और अनेक क्षेत्रीय भाषाओं में हस्तलिखित पांडुलिपियों की पुरानी परम्परा थी। इस प्रकार भारत में सूचना और विचार हाथ से लिखे जाते थे। पाण्डुलिपियाँ ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर नकल कर बनाई जाती थीं। कभी-कभी पन्नों पर श्रेष्ठ चित्र भी बनाए जाते थे। फिर उन्हें लम्बे समय तक सुरक्षित रखने के लिए तख्तियों की जिल्द में या सिलकर बांध दिया जाता था।
पांडुलिपियों की त्रुटियाँ- पांडुलिपियों की प्रमुख त्रुटियाँ निम्नलिखित थीं-
पाण्डुलिपियां नाजुक होती थीं। इसके अतिरिक्त ये काफी महंगी भी होती थीं।
पाण्डुलिपियों को सावधानी से पकड़ना होता था।
लिपियों के अलग-अलग तरीके से लिखे जाने के परिणामस्वरूप उन्हें पढ़ना भी सरल नहीं था। इसलिए उनका व्यापक दैनिक प्रयोग नहीं होता था।
भारत में मुद्रण तकनीक का आगमन- भारत में प्रिंटिंग प्रेस सर्वप्रथम सोलहवीं सदी में गोवा में पुर्तगाली धर्मप्रचारकों के साथ आया। 1674 ई. तक कोंकणी और कन्नड़ भाषाओं में लगभग 50 पुस्तकें छप चुकी थीं। कैथोलिक पादरियों ने 1579 ई. में कोचीन में पहली तमिल पुस्तक छापी। 1713 ई. में उन्होंने पहली मलयालम पुस्तक छापी। डच प्रोटेस्टेन्ट धर्म प्रचारकों ने 32 तमिल पुस्तकें छापी।
अंग्रेज-भाषी प्रेस- अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक छापेखाने का आयात शुरू कर दिया था। जेम्स आगस्टस हिक्की ने 1780 से बंगाल गजट नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन करना शुरू किया। अठारहवीं सदी के अन्त तक अनेक पत्र-पत्रिकाएँ छपने लगीं। कुछ भारतीय भी अपने समाचार-पत्र छापने लगे। गंगाधर भट्टाचार्य ने 'बंगाल गजट' का प्रकाशन शुरू किया।