भारत में 19वीं सदी में मुद्रण ने न केवल विभिन्न समुदायों के विरोधाभासी विचारों के प्रकाशन को प्रेरित किया, अपितु उन्हें आपस में जोड़ा भी। यथा-
19वीं सदी के अन्त में जाति भेद के बारे में विभिन्न पुस्तिकाएँ और निबंध प्रकाशित हुए। ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी-1871' में जाति प्रथा के अत्याचारों का वर्णन किया।
स्थानीय जाति-विरोधी और रूढ़िवादी-विरोधी आंदोलनों और सम्प्रदायों ने धर्मग्रन्थों की आलोचना करते हुए, नये और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने की मुहिम में लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ और गुटके छापे।
19वीं शताब्दी के समाज सुधारकों ने पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा सती प्रथा, विधवा-विवाह, बाल-विवाह, मूर्ति-पूजा, जाति-प्रथा और ब्राह्मणवाद को समाप्त करने के लिए अपने लेखों के द्वारा आवाज उठाई।
समाज सुधारकों ने प्रेस के जरिये यह प्रयास किया कि मजदूरों के बीच नशाखोरी कम हो, साक्षरता आए और उन तक राष्ट्रवाद का संदेश भी पहुँचता रहे।