मंडल आयोग की स्थापना जनता पार्टी की सरकार ने 1979 ई. में की थी । इसके अध्यक्ष श्री वी. पी. मंडल थे। इस आयोग का कार्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों की पहचान करना तथा उनके विकास के लिए सुझाव देना था, मंडल आयोग ने 31 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की। मंडल आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें की –
(i) सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 27% आरक्षण होना चाहिए।
(ii) अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए बनाए गए कार्यक्रम के लिए धन, केन्द्र सरकार को देना चाहिए ।
1989 ई. का लोकसभा चुनाव हुआ। चुनाव के बाद जनता दल की सरकार बनी । प्रधानमंत्री श्री वी. पी. सिंह ने संसद में राष्ट्रपति भाषण के जरिए मंडल रिपोर्ट लागू करने की अपनी मंशा की घोषणा को। तब जाकर 6 अगस्त, 1990 ई. को केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में एक औपचारिक निर्णय लिया गया । केन्द्रीय सरकार की तरफ से इस पर स्वीकृति दे दी गई और 13 अगस्त, 1990 ई. में संयुक्त सचिव के हस्ताक्षर से कानून निर्गत हुआ। देशभर में इसका काफी विरोध हुआ। इस निर्णय के विरुद्ध कई अदालतों में मुकदमें दायर किये गये । निर्णय को अवैध घोषित करने की मांग हुई। परन्तु भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इन सभी मुकदमों को एक साथ जोड़ दिया और मुकदमें को ‘इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामला’ कहा । कोर्ट के 11 सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद 1992 ई. में फैसला दिया कि पिछड़े वर्ग में अच्छी स्थिति वाले लोगों को इस आरक्षण से वंचित करते हुए मंडल आयोग को वैध ठहराया। उसी के मुताबिक 8 सितम्बर 1993 ई. को कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया । यह विवाद सुलझ गया और तभी से इस नीति पर अमल किया जा रहा है।